चार निजी बीमा कंपनियों द्वारा सरकार की प्रमुख फसल बीमा योजना-प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) से बाहर जाने का निर्णय कतई चौंकाने वाला नहीं है। कृषि क्षेत्र में बीमा योजनाएं सन 1970 के दशक के आरंभ से ही अपनाई जाती रही हैं। यह सच है कि इस योजना को ऐसी अन्य योजनाओं की तुलना में अधिक सफलता मिली है लेकिन यह भी कुछ ऐसी कमियों की शिकार है जिनके चलते यह न बीमाकर्ताओं के लिए आकर्षक रह गई और न ही किसानों के लिए। बीमा कंपनियों को यह घाटे का सौदा लगती है, सरकार द्वारा 90 फीसदी की भारी सब्सिडी के बावजूद किसान शिकायत करते हैं कि उन्हें मिलने वाला हर्जाना बहुत कम है और लंबे अंतराल के बाद मिलता है। आम धारणा है कि बीमा कंपनियां अनुचित तरीके से सब्सिडी का लाभ ले रही हैं। यह आंशिक सच है। सन 2016 में योजना के शुरुआती वर्ष में मौसम के कारण फसल को नुकसान भी कम हुआ और इसलिए हर्जाना भी कम चुकाना पड़ा। इससे बीमाकर्ताओं को अच्छा मुनाफा हुआ। परंतु तब से हालात में बदलाव आया और 2018 में बारिश सामान्य से 9 फीसदी कम और 2019 में 10 फीसदी ज्यादा हुई। इससे कई राज्यों में फसल को भारी नुकसान पहुंचा। यही कारण है कि हर्जाने के दावे संग्रहीत प्रीमियम से अधिक हो गए। इसका असर बीमा कंपनियों के मुनाफे पर पड़ा और फसल बीमा उनके लिए आकर्षक नहीं रह गया।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के डिजाइन में कई कमियां हैं। इसमें बटाई पर खेती करने वाले किसानों की फसल के बीमा में बैंकों को अनिवार्य रूप से शामिल करना और नुकसान का आकलन हर किसान के लिए अलग से करने के बजाय एक तय इलाके में औसत फसल नुकसान के आधार पर करना शामिल है। बैंक प्राय: हर्जाने की राशि को बिना किसानों की सहमति के ऋण की राशि में समायोजित कर देते हैं। इसके चलते किसानों, बैंकों और बीमा कंपनियों के बीच भरोसा कमजोर पड़ रहा है। इसके अलावा केंद्र सरकार के साथ वित्तीय बोझ वहन करने में राज्य की समान भागीदारी की बात तथा फसल कटाई के प्रयोग के जरिये नुकसान का आकलन आदि भी दिक्कत पैदा कर रहे हैं। नुकसान के आकलन में तकनीक का प्रयोग भी वांछित तरीके से नहीं हो रहा है। इससे फसल नुकसान के आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं और पुनर्भुगतान की राशि को अंतिम रूप देने में देर हो रही है। इतना ही नहीं राज्य अक्सर फंड में अपना हिस्सा देर से जारी करते हैं और वह भी किस्तों में। इसका असर नकदी की स्थिति और बीमा कंपनियों की भुगतान क्षमता पर पड़ता है। कई राज्यों ने सुनिश्चित राशि को बेहद कम रखा है जिससे लागत की भरपाई भी नहीं हो पाती। एक और बात यह है कि फसल बुवाई से लेकर कटाई तक कवरेज प्रदान करने वाली यह योजना मूल्य जोखिम की अनदेखी करती है जबकि वह किसानों के लिए अत्यंत आवश्यक है।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का हश्र भी ऐसी पुरानी योजनाओं जैसा नहीं हो, इसके लिए इन मुद्दों को समुचित तरीके से हल करना आवश्यक है। भारतीय किसान खासकर छोटे और सीमांत किसान जो बुरी तरह कर्ज में डूबे हुए हैं, उन्हें फसल बीमा की सख्त आवश्यकता है ताकि वे अपने जोखिम का बचाव कर सकें। बीमारियों, कीट-पतंगों और सबसे बढ़कर जलवायु परिवर्तन के चलते ये दिक्कत बढ़ती जा रही है। अतिरंजित मौसम की घटनाएं पहले ही बढ़ गई हैं। चक्रवाती तूफान जो पहले कभी-कभार आया करते थे वे हाल के दिनों में देश के तटीय इलाकों में आम हो गए हैं। इन घटनाओं ने पहले से नकदी की किल्लत झेल रहे किसानों को और परेशानी में डाला है। जब तक उन्हें एक सहज फसल बीमा जैसा विश्वसनीय जोखिम प्रबंधन नहीं मिल जाता, उनकी निराशा बढ़ती जाएगी।