कहां गुम हो गया 60,000 करोड़ रुपये का दूध!

भारत में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा, जिसे श्‍वेत क्रांति के तहत 1990 के दशक का प्रसिद्ध विज्ञापन याद नहीं होगा। इसकी टैग लाइन थी-'दूध है वंडरफुल'। इसने रोजाना दूध पीकर आनंदित एक स्कूली लड़की, एक बॉडी बिल्डर और एक बुजुर्ग दंपत्ति को दिखाकर देश के हर क्षेत्र में दूध को लोकप्रिय बना दिया। यह विज्ञापन इस लिहाज से भविष्यदृष्टा था कि अगले दो दशकों में दूध का उत्पादन और उपभोग दोगुना हो गया। लेकिन वर्ष 2017-18 में असामान्य रुझान देखने को मिला है, जिसमें भारतीयों द्वारा दूध और उससे बने उत्पादों पर किए जाने वाले खर्च में 10 फीसदी कमी आई है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के आंकड़ों से पता चलता है कि भारतीय परिवारों, होटलों, हलवाई की दुकानों ने 2016-17 में दूध एवं दुग्ध उत्पादों पर छह लाख करोड़ रुपये खर्च किए, लेकिन यह खर्च 2017-18 में घटकर 5.4 लाख करोड़ रुपये पर आ गया। यह 10 फीसदी गिरावट नॉमिनल है। वास्तविक कीमतों (वर्ष 2011-12 की कीमतों पर) पर गिरावट करीब 14 फीसदी यानी 4.1 लाख करोड़ रुपये से घटकर 3.53 लाख करोड़ रुपये है। विशेषज्ञों और आधिकारिक प्रवक्ता इन आंकड़ों की अलग-अलग व्याख्या करते हैं। कुछ ने कहा कि किसानों या श्रमिकों की आय में गिरावट के कारण वे दूध पर पहले जितना खर्च नहीं कर पा रहे हैं। वहीं कुछ का कहना है कि उस वर्ष दूध की वैश्‍विक कीमतों में गिरावट आई है, जिससे भारत में भी दूध सस्ता हुआ है। 
 जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हिमांशु ने कहा कि यह बदहाली का संकेत है और इसकी वजह किसानों और श्रमिकों की आमदनी स्थिर हो जाना है। उन्होंने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया, 'इससे संकेत मिलता है कि सबसे गरीब लोगों ने नोटबंदी के अगले वर्ष में आवश्यक वस्तुओं पर खर्च में कटौती की है।' उनका एनएसओ के आंकड़ों का स्वतंत्र विश्‍लेषण यह दर्शाता है कि वर्ष 2017-18 में आय घटने के आसार हैं।
भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणव सेन ने इसे 'बहुत गंभीर' मसला बताया क्योंकि यह आमदनी में कमी का संकेत है। डेरी क्षेत्र की अहमदाबाद की एक अग्रणी कंपनी पराग मिल्क फूड्स के चेयरमैन देवेंद्र शाह ने बिज़नेस स्टैंडर्डको बताया कि उस साल उत्पादन और खपत दोनों में बढ़ोतरी हुई थी। उन्होंने कहा, 'ये आंकड़े आश्‍चर्यजनक हैं क्योंकि वे जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाते हैं।' उन्होंने कहा कि देश में उत्पादित होने वाले 40 फीसदी दूध की गांवों के स्तर पर ही खपत हो जाती है, जबकि शेष 60 फीसदी दूध की बिक्री की जाती है। वर्ष 2017 में दूध की वैश्‍विक कीमतें 1,600 डॉलर प्रति टन के कई वर्षों के निचले स्तर पर आ गई थीं। देश की सबसे बड़ी दूध कंपनी अमूल ने कहा कि दूध पर उपभोक्ता खर्च में गिरावट का ताल्लुक असंगठित क्षेत्र के समूहों से हो सकता है, जो तुलनात्मक रूप से कम शहरी क्षेत्रों में दूध की बिक्री एवं वितरण करते हैं।  अमूल के प्रबंध निदेशक आर एस सोढी ने कहा, 'करीब दो-तिहाई दूध बाजार असंगठित है। उस बाजार में दूध की अधिक आपूर्ति से कीमतें इतनी गिरी होंगी कि दूध एवं इससे बने उत्पादों पर कुल खर्च घट गया होगा।'  कृषि मंत्रालय के तहत आने वाला डेरी डिविजन भी उपभोक्ता खर्च में भारी गिरावट की ठोस वजह नहीं बता सका। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड ने भी कोई जवाब नहीं दिया। बिजनेस स्टैंडर्ड हिन्दी