अन्नदाता किसानों पर हाल के कुछ वर्षों में पराली जलाकर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने का आरोप लगने लगा है। कुछ हद तक यह सही भी है। पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार गत वर्ष 27 सितम्बर से 9 नवम्बर के बीच राज्य में पराली जलाने की कुल 39,973 घटनाएँ दर्ज की गई। इनमें से 22,313 घटनाएँ 1 से 9 नवम्बर के बीच सामने आई। अप्रैल में गेहूँ की फसल काटने के बाद धान उगाने के बीच लगभग तीन माह का समय होता है। इस बीच गेहूँ के अवशेष को आसानी से पर्यावरण हितैषी तरीके से निस्तारित किया जा सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में कुछ किसानों ने न सिर्फ पराली को खेतों में दबाकर बनी खाद से अच्छी फसल ली बल्कि कुछ ने तो खाद को बेचकर नकदी भी अर्जित की। इन्हें देखते हुए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने पर्यावरण व किसानों के हित में इन राज्यों में पराली जलाने पर दिसम्बर, 2015 में रोक लगा दी थी। साथ ही सरकार को आदेश दिया था कि किसानों को मशीनों पर सब्सिडी दी जाए, उन्हें जागरुक किया जाए, ताकि वे पराली को लाने के बजाय उसका उचित निस्तारण कर सके। हालांकि इन आदेशों का पालन सरकार ठीक से नहीं कर रही है, जिससे पराली की समस्या जस की तस बनी हुई है। पराली जलाने का सिलसिला पंजाब-हरियाणा से शुरू होकर आंध्र प्रदेश, असम, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल से होते हुए उत्तर प्रदेश तक पहुँच गया है। पंजाब-हरियाणा को इसलिए ज्यादा नोटिस किया जाता रहा है, क्योंकि इनकी दूरी देश की राजधानी के तकरीबन सौ किलोमीटर है। इसलिए पराली जलाने से प्रदूषण की जो बयार पंजाब और हरियाणा से चलती है वह दिल्ली की आबादी को सबसे पहले प्रदूषित करती है। एक शोध के अनुसार, एक टन पराली जलाने पर हवा में 3 किलो कार्बन कण, 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साइड, 1500 किलो कार्बन डाईऑक्साइड, 200 किलो राख व 2 किलो सल्फर डाईऑक्साइड फैलते हैं। इससे लोगों की त्वचा व सांस सम्बन्धी तकलीफें बढ़ जाती हैं। पराली जलाने से मिट्टी में मौजूद मित्र कीट भी नष्ट हो जाते हैं। एक ग्राम मिट्टी में करीब 20 करोड़ लाभकारी जीवाणु होते हैं। उनमें से मात्र 15 लाख के लगभग रह जाते हैं। अगली फसल पर सिंचाई और खाद पर भी ज्यादा खर्च करना पड़ता है।
तो उपाय क्या हैं ?
अब कुछ दशक पीछे जाते हैं, जब खेती में मशीनों का उपयोग कम, मजदूरों व पशुओं का ज्यादा था, लेकिन जैसे-जैसे हमने कृषि में विकास किया, पैदावार बढ़ी। वैसे-वैसे मशीनों का उपयोग बढ़ता गया। पराली जलाना र्(ीीींललश्रश र्लीीपळपस) मशीनीकरण के बाद आने वाले परिणामों का एक नमूना है। पहले धान व गेहूँ की फसल हाथों से काटी जाती थी, जिसमें कृषि का कोई अवशेष खेत में नहीं बचा था। उसका भूसा आदि बना लिया जाता था। अब मशीन से फसल कटाई में धान व गेहूँ की पराली को छोड़कर अनाज को ले लिया जाता है। किसानों के पराली जलाने के मुख्य कारणों में कटाई के लिए मजदूरों का ज्यादा पैसे की मांग और अधिक समय लगना भी है। यहाँ समझने की जरूरत है कि पराली र्(ीीींललश्रश) बहुपयोगी स्रोत भी हो सकता है। अप्रैल में गेहूँ की फसल काटने के बाद धान उगाने के बीच लगभग तीन माह का समय होता है। इस बीच गेहूँ के अवशेष को आसानी से पर्यावरण हितैषी तरीके से निस्तारित किया जा सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में कुछ किसानों ने न सिर्फ पराली को खेतों में दबाकर बनी खाद से अच्छी फसल ली बल्कि कुछ ने तो खाद को बेचकर नकदी भी अर्जित की। अब सवाल यह है कि पराली निस्तारण को लेकर ऐसी आम जानकारियाँ भी लोगों तक पहुँची नहीं हैं, तो इसके पीछे क्या कारण है। डिजिटल इंडिया के इस दौर में भी बहुत से किसान पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और कम्पोस्ट खाद जैसे नामों से अनजान हैं। सरकार ने जिन एजेंसियों को ऐसे मामलों में जागरूकता की जिम्मेदारी सौंपी है, वे गाँवों में जाते तक नहीं हैं। ऐसे में पराली अब एक विकराल समस्या बन कर खड़ी हो गई हैं।
किसानों के सुझाव
हालाकि, कुछ सुझाव किसानों की तरफ से भी आए, जिनका कहना है कि पर्यावरण मित्र तरीके से पराली ठिकाने लगाने का मतलब है प्रति एकड़ अतिरिक्त खर्चा, जिसके लिए उन्होंने सरकार से पर्याप्त क्षतिपूर्ति की माँग की। खासतौर से पंजाब के किसानों ने। एक सुझाव यह भी आया कि धान की खरीद की तरह ही सरकार किसानों की पराली उठाने का प्रबंध भी करें। इसका इस्तेमाल नवीकरण योग्य ऊर्जा संयंत्रों में ईंधन के रूप में करने के अलावा गत्ता निर्माण के लिए भी किया जा सकता है। वैसे देखा जाए तो पराली की समस्या भी जैसे फसली होकर रह गई है। जब अक्टूबर-नवम्बर आता है अथवा चुनावों का माहौल होता है तो इसकी गूँज हर तरफ सुनाई देती है और जैसे ही यह समय पार हो जाता है, फिर से चुप्पी छा जाती है, जबकि पराली को बड़ी समस्या मानते हुए वर्ष भर जागरुकता अभियान चलाने और लोगों को पराली के उचित निस्तारण की जानकारी देने की जरूरत है। साथ ही सरकार, जनप्रतिनिधियों और पंचायत स्तर तक सभी को शामिल करते हुए एक ठोस नीति बनाने की आवश्यकता है। -साभार इंडिया वाटर पोर्टल हिंदी