कृषि प्रधान भारत में कृषि आधारित कई व्यावसाय हैं जो इस देश की तस्वीर और तकदीर बदलने की ताकत रखते हैं। लेकिन आज भी इसकी तरफ ध्यान बहुत कम है। कम लागत में शुरू होने वाले इन व्यावसायों को करने के लिए किसी खास तकनीक की जरूरत नहीं है और न ही इसके लिए बहुत ज्यादा पढ़े लिखे होने की जरूरत है। हॉ इतनी इन कामों के प्रति लगन और मेहनत करने की क्षमता है तो खुद के साथ अन्य लोगों को भी रोजगार देने की क्षमता विकसित की जा सकती है।
डेयरी और पशुपालन का व्यावसाय
कृषि के साथ पशुपालन करना बहुत ही पुरानी परम्परा है, लेकिन इसे मुख्य व्यवसाय के तौर पर नहीं किया जाता है। भारत विश्व में शीर्ष दुग्ध उत्पादक के तौर पर अपनी पहचान बना चुका है और लगभग 17 करोड़ टन दूध उत्पादन के साथ वैश्विक दुग्ध उत्पादन का लगभग 19 प्रतिशत का योगदान करता है। आज जरूरत है पशुपालन पर अधिक ध्यान दिए जाने और दूध एवं इससे तैयार होने वाले उत्पादों की मार्केटिंग पर बल देने की। कृषि से प्राप्त विभिन्न उत्पादों के बूते डेयरी का काम बड़ी ही सुगमता से चलाया जा सकता है। बल्कि इनसे प्राप्त गोबर का उपयोग खेतों में खाद के रूप में भी किया जाता है। अच्छी नस्ल के पशुओं और उनकी संततियों के सहारे इस काम का विस्तार भी किया जा सकता है। इसमें गाय और भैंस दोनों प्रकार के पशुओं को शामिल किया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि दूध और इससे तैयार होने वाले पनीर, छाछ, घी, मिल्क पाउडर जैसे प्रसंस्कृत उत्पादों से मिलने वाली आय के साथ पशु बिक्री से भी पशुपालकों को आमदनी हो जाती है। इतनी ही नहीं, देशभर में फैली डेयरी कोऑपरेटिव सोसायटीज से भी लाखों की संख्या में लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इसी तरह से पशुपालन के जरिए पशुओं के बाल, मांस, चमड़े, एवं हड्डियों पर आधारित उद्योगों को कच्चे माल के तौर पर सप्लाई कर आय बढ़ाई जा सकती है।
सरकारी कोशिशें
पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय कामधेनु आयोग की स्थापना किए जाने की घोषणा बजट में की गई है, इस योजना पर 750 करोड़ रुपए का खर्च किया जाएगा। यही नहीं, डेयरी स्थापना के लिए नाबार्ड से 25 प्रतिशत सब्सिडी दिए जाने का प्रावधान किया गया है। देश में दुधारू पशुओं से रोजगार की बढ़ती सम्भावनाओं के बीच केन्द्र सरकार ने डेयरी उद्यमिता विकास योजना भी शुरू की है। नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड द्वारा 42 डेयरी प्रोजेक्ट्स की शुरुआत करने की घोषणा की गई है और इसके लिए 221 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। इसके अन्तर्गत उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे राज्यों में दुग्ध उत्पादकता बढ़ाने पर जोर दिया जाएगा।
मछली पालन से मिलेगा रोजगार
मछली को आहार के तौर पर सिर्फ पश्चिम बंगाल और दक्षिणी भारत के प्रदेशों में ही नहीं बल्कि देश के प्रायः प्रत्येक हिस्से में बड़े शौक से खाया जाता है। नदियों और ताल-तालाबों से मछली पकड़ने के साथ ग्रामीण-स्तर पर खेत में ऐसे जलाशय बनाकर भी बड़े पैमाने पर मछली पालन का काम किया जा रहा है। इस कार्य में एक बार खेत की खुदाई करने और जलाशय तैयार करने का मोटा खर्च तो अवश्य है, पर इसके बाद यह सतत आमदनी का जरिया भी बन जाता है। एक मोटे अनुमान के अनुसार प्रति एकड़ तालाब से 3 लाख रुपए से अधिक मूल्य की मछलियों का वार्षिक उत्पादन सम्भव है। कृषि तथा शूकर पालन के बचे अपशिष्ट इन मछलियों के लिए आहार का काम करते हैं। इस कार्य में देखभाल की जरूरत पड़ती है और समयव पर मछलियों के स्वास्थ्य की जाँच करनी जरूरी होती है। अन्यथा रोग होने पर समूचे तालाब की मछलियाँ मर सकती हैं। प्रायः इसके लिए मत्स्य वैज्ञानिकों की सेवाएँ ली जाती हैं। स्थानीय तौर पर बिक्री के अतिरिक्त बाहरी खरीदारों को भी कॉन्ट्रेक्ट आधार पर बेचने की व्यवस्था करने का विकल्प भी विकसित किया जा सकता है। यहाँ यह जिक्र करना भी प्रासंगिक होगा कि भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश बन चुका है।
सरकारी पहल
बजट में मछली पालन और मछुआरा समुदाय को लाभ पहुँचाने पर भी फोकस किया गया है। बजटीय भाषण में यह ऐलान किया गया कि प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना के अन्तर्गत मात्स्यिकी विभाग में इससे सम्बन्धित मजबूत ढाँचा तैयार किया जाएगा, जो मत्स्य कृषकों को आवश्यक सहायता और संसाधन उपलब्ध करवाने में मदद करेगा। नीली क्रान्ति का उद्देश्य किसानों की आय को दोगुना करने से भी सम्बन्धित है। गत चार वर्षों के दौरान इसके कार्यान्वयन के लिए 1915.33 करोड़ रुपए जारी किए गए। मत्स्य पालन एवं जल कृषि अवसंरचना विकास निधि से मत्स्य पालन तथा सम्बन्धित गतिविधियों में 9.40 लाख मछुआरों एवं उद्यमियों के लिए रोजगार के अवसरों का सृजन करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। इस अवधि में जलकृषि के अन्तर्गत 29,128 हेक्टेयर क्षेत्रफल का विकास किया गया। कुल 7441 पारम्परिक मछली पकड़ने वाली नौकाओं को मोटरचालित नौकाओं में परिवर्तित किया गया। मात्स्यिकी एवं जलकृषि में 7522 करोड़ रुपए की निधि का सृजन किया गया।
खाद्य प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन
ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय तौर पर उपजने वाले अधिकांश कृषि उत्पादों का मूल्य संवर्धन या वैल्यू एडिशन करके बेचने से अधिक कीमत मिल पाना सम्भव है। उदाहरण के लिए आलू एवं केले के चिप्स, विभिन्न प्रकार के अचार, पापड़, बड़ियां दूध से तैयार होने वाला पनीर, खोया, छाछ जैसे प्रोडक्ट्स, गेहूँ से दलिया, चने से सत्तू, धान से चिड़वा, आम की चटनी, मुरब्बा, विभिन्न मसालों से तैयार स्वादिष्ट बुकनू, मक्के एवं बाजरे का आटा, मूँगफली के भुने हुए दाने, चिक्की, सोयाबीन से दूध, फलों से शर्बत, गन्ने से गुड़, तिलहनों से तेल निकालना, दलहनी फसलों से दालें तैयार करना, धान से चावल निकालना आदि का काम खासतौर पर लिया जा सकता है। ऐसे उत्पादन कार्यकलापों से जुड़कर खाली समय में स्थानीय महिलाएँ अतिरिक्त आय कमा सकती हैं। अमूमन ऐसे कार्यों के लिए पूर्व-प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती है। इनके अतिरिक्त फूलों से इत्र बनाना, लाख से चूड़ियाँ एवं खिलौने बनाना, कपास के बीजों से रुई अलग करना एवं पटसन से रेशे निकालने आदि को भी इस क्रम में आय अर्जन का साधन बनाया जा सकता है।
प्रोसेसिंग में सरकारी पहल
सेल्फ एम्प्लॉयमेंट इन एग्रो प्रोसेसिंग के अन्तर्गत सरकारी एजेंसियों द्वारा कृषि प्रसंस्करण-आधारित कौशल प्रशिक्षण दिया जाता है और ऐसी लघु ग्रामीण इकाइयों में तैयार उत्पादों के लिए मार्केटिंग करने में सहायता देकर बड़ी संख्या में ग्रामीण युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया जाता है।
ग्रामीण कुटीर उद्योग
देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन और आय बढ़ाने में कुटीर उद्योगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ग्राम-स्तर पर अत्यंत लघु इकाई के रूप में कई तरह के कुटीर उद्योग भी शुरू किए जा सकते हैं जिनके लिए कच्चे माल की आपूर्ति स्थानीय तौर पर उपजने वाले कृषि उत्पादों से होती है। ऐसी इकाइयों का सबसे बड़ा फायदा यह है कि बड़ी संख्या में ग्रामीण युवाओं को रोजगार के मौके मिल जाते हैं। ऐसे कुटीर उद्योग में प्रमुख तौर पर कृषि औजार बनाना, मिट्टी के बर्तन बनाना, टोकरियाँ और चटाइयाँ बुनना, बांस से फर्नीचर बनाना, जूट के बोरे/टाट तैयार करना, हस्तचालित पंखे बनाना, मूंज से रस्सी व मोढ़े तैयार करना, बेंत से कुर्सी व मेज बनाना, रूई से रजाई-गद्दे एवं तकिए बनाना, सूत बनाकर हथकरघा निर्मित सूती वस्त्र बनाना, गलीचा तैयार करने जैसे उद्यमों का काम लिया जा सकता है।
सरकारी प्रोत्साहन
समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों के उत्थान के उद्देश्य के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों की योजनाओं के निर्देशानुसार बैंको द्वारा ऐसे कुटीर उद्योगों की स्थापना के लिए अत्यंत रियायती दरों पर ऋण की सुविधा दी जाती है। ग्रामीण बैंकों के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की कृषि विकास शाखाओं एवं सहकारी समितियां इस बाबत अहम भूमिका रही हैं। इन संस्थानों के माध्यम से कृषि-सम्बद्ध आधारित कुटीर उद्योग-धन्धों को आरम्भ करने के लिए सरकार द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं के माध्यम से ग्रामीण बेरोजगारों को कम ब्याज दर तथा आसान किश्तों पर ऋण दिया जाता है।
बकरी पालन यानी किसानों का एटीएम
औसतन प्रति बकरी से 1200-1500 रुपए तक की कमाई वार्षिक आधार पर सम्भव है। हालांकि दूध, मांस और बकरी की खाल बेचकर इसे 2000 रुपए की आमदनी के स्तर तक भी लाया जा सकता है। इस प्रकार 10-15 को पालकर 15,000 रुपए से लेकर 20,000 रुपए तक की वार्षिक आय सम्भव हो सकती है। इसके अलावा, बकरी के दूध के संग्रहण और मार्केटिंग का नेटवर्क या सरकारी एजेंसी का इसके साथ विकास किया जा सकता है।
मधुमक्खी पालन
परंपरागण के जरिए विभिन्न फसलों की पैदावार बढ़ाने के साथ मधुमक्खियों से स्वास्थ्यवर्धक शहद भी अच्छी-खासी मात्रा में मिलता है। मधुमक्खी पालन के काम को किसानों द्वारा अत्यन्त कम लागत में शुरू किया जा सकता है। इनकी देखभाल के लिए ज्यादा समय की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक मधुमक्खी छत्ते से औसतन 40 किलोग्राम तक शहद का उत्पादन सम्भव है। प्रति किलो 75 रुपए की विक्रय दर से भी प्रति छत्ता 30,000 रुपए की कमाई की जा सकती है। इस प्रकार 10-15 छत्ते रखने पर 30 से 45 हजार रुपए तक की अतिरिक्त सालाना आमदनी मिल सकती है।
सरकारी पहल
सरकार द्वारा भी मधुमक्खी पालन को प्रोत्साहित करने के लिए कई तरह की योजनाएँ संचालित की जाती हैं। इससे सम्बन्धित प्रशिक्षण के लिए भाकृअनुप-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली से सम्पर्क किया जा सकता है। यही नहीं नेशनल बी बोर्ड (हीींिं:///पलल-.र्सेीं.ळप) द्वारा भी ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रम और मधुमक्खी पालन का काम शुरू करने के इच्छुक लोगों के लिए वित्तीय सहायता भी उपलब्ध करवाई जाती है।
मोती संवर्धन
हाल के वर्षों में यह कार्य भी किसानों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ है। इस काम को शुरू करने के लिए बहुत बड़े ताल या तालाब की आवश्यकता नहीं पड़ती है। मोती संवर्धन में ऑयस्टर पालन से लेकर मोती तैयार करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया शामिल है। इसके लिए विशेष ट्रेनिंग लेने की जरूरत पड़ती है। कहने की जरूरत है कि हमारे देश में ही नहीं विदेशों में ऐसे मोतियों की कम माँग नहीं है। इससे सम्बन्धित ट्रेनिंग भुवनेश्वर स्थित सरकारी संस्थान से ली जा सकती है।
मशरूम की खेती
हमारे स्वास्थ्य के लिए संतुलित आहार में प्रोटीन का विशेष महत्व है। मशरूम में प्रोटीन प्रचुर मात्रा में होता है। इसके उत्पादन के लिए न तो ज्यादा जमीन की और न ही अधिक पूँजी की आवश्यकता पड़ती है। मशरूम का उत्पादन कर अच्छी-खासी आमदनी हासिल की जा सकती है। इस व्यवसाय के लिए तकनीकी प्रशिक्षण लेना जरूरी है ताकि खाद्य मशरूमों की पहचान के साथ-साथ उन्हें अवांछनीय मशरूमों व अन्य सूक्ष्मजीवों के संक्रमण से बचाया जा सके।
मुर्गीपालन
आजकल अंडो एवं मुर्गा मांस का कारोबार करने और मुर्गियों का आहार तैयार करने वाली कितनी ही कम्पनियाँ ग्रामीण युवाओं को पोल्ट्री फार्म स्थापित करने के लिए कॉन्ट्रेक्ट आधार पर हर सम्भव सहायता देती हैं। इसके लिए युवा के पास अपनी जगह होने के साथ मुर्गी पालन के लिए श्रम उपलब्ध करवाने की शर्त रखी जाती है। इन कम्पनियों के साथ करार करने पर ये चूज़ों के साथ मुर्गी आहार भी उपलब्ध करवाती हैं। इन चूंजों को लगभग 6 से 8 सप्ताह तक पालने का जिम्मा युवाओं का होता है। समयव पर इन कम्पनियों की ओर से चिकित्सक चूज़ों के वजन और स्वास्थ्य की जाँच भी करने के लिए आते हैं। रोग होने पर आवश्यक दवा कम्पनी द्वारा ही दी जाती है। निर्धारित वजन होने पर ये पली-बढ़ी मुर्गियों को वापिस ले लेते हैं और इसके बदले में प्रति पक्षी पूर्व तयशुदा रकम का भुगतान कर दिया जाता है। इस काम में हर दो माह बाद अच्छी खासी रकम युवाओं को मिल जाती है। कमोबेश इसी तरह से बत्तख पालन का भी काम है जिसके जरिए कम समय और लागत में अच्छी-खासी आमदनी हासिल की जा सकती है। पोल्ट्री के काम में आजकल चिकन के प्रसंस्करित उत्पादों का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है। युवा इससे सम्बन्धित ट्रेनिंग लेकर अपनी आय को बढ़ा सकते हैं।
सूअर पालन
कृषि-सम्बद्ध कार्यकलापों में यह भी एक ऐसा महत्त्वपूर्ण व्यवसाय है, जिसमें कम-से-कम पूंजी निवेश से बिना अधिक मेहनत के आय अर्जन सम्भव है। कई विदेशी नस्लें हैं जो एक बार में 10-12 तक शिशुओं को एक बार में जन्म देती हैं। यही नहीं, अन्य पशुओं के मुकाबले इनके शिशुओं का वजन कहीं तेजी से बढ़ता है। कृषि और घरेलू अपशिष्ट इन्हें आहार के तौर पर दिया जाता है, इसलिए अत्यंत न्यून खर्च पर इनका पालन कर पाना सम्भव है।
गन्ने से तैयार विभिन्न उत्पाद
ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत से ऐसे किसान हैं, जो बैलों या छोटी मशीनों से गन्ने का रस निकालकर उससे गुड़ और शक्कर जैसे उत्पाद बनाते हैं। इन्हें स्थानीय दुकानदारों या लोगों को बेचकर ये थोड़ा-बहुत मुनाफा कमा लेते हैं। इस प्रक्रिया में रोजगार के अवसरों का भी सृजन होता है। किसान मिलों को गन्ना उपज देने और उसके दाम मिलने में काफी समय लगने के कारण छोटे किसान ऐसे छोटे गुड़ निर्माताओं को कम कीमत पर गन्ना देकर नगद राशि लेना बेहतर समझते हैं।
रेशम उत्पादन
कृषि-सम्बद्ध गतिविधियों के अन्तर्गत रेशम पालन भी ऐसा कार्य है जिससे किसान अपनी आय को बढ़ा सकते हैं। सरकार द्वारा भी राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत रेशम उत्पादन को कृषि कार्य से सम्बद्ध व्यवसाय के तौर पर मान्यता प्रदान की गई है। इसी कारणवश रेशम के कीड़ों को पालने वाले किसानों को इस योजना के अन्तर्गत दी जाने वाली समस्त सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाती हैं। यही नहीं, सरकारी तौर पर वन अधिनियम में संशोधन कर गैर-मलबरी रेशम की खेती को वन-आधारित गतिविधियों में शामिल कर लिया गया है ताकि किसानों को रेशम के कीड़ों को जंगल के माहौल में पालने में मदद मिल सके।
सरकारी पहल
कैबिनेट द्वारा रेशम उद्योग के विकास के लिए एकीकृत योजना को मंजूरी दी गई है, इससे वर्ष 2020 तक उच्चस्तरीय रेशम के उत्पादन में 62 प्रतिशत तक वृद्धि होने का अनुमान है। सरकार का लक्ष्य रेशम के क्षेत्र में कार्यरत 85 लाख लोगों की संख्या को बढ़ाकर अगले तीन वर्षों तक संख्या को एक करोड़ तक पहुँचाने का है। यही नही इनमें से 50 हजार लोगों को प्रशिक्षण भी देने का प्रावधान किया गया है। किसानों और रेशम उत्पादक संघों द्वारा बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए केन्द्र सरकार द्वारा वित्तीय सहायता भी उपलब्ध करवाई जाएगी।